Friday, 30 September 2022

मिलान कुंदेरा- आत्मा का उशृंखल संवाद

मिलान कुंदेऱा लम्हों के लेखक है उड़ते से क्षणभंगुर मनोभावों और जज्बातों के। हालाँकि वो अपने तरीके को ‘meditative interrogation’ या ‘interrogative meditation’ कहना पसंद करते हैं पर आनंदमय विलम्बित meditation होता तो क्षणभंगुर मनोभावों और जज्बातों के बारे में ही है।  हो सकता है ये मैडिटेशन किसी महिला के गुड बाई करते हुए हाथों की लहर पर हो या किसी की नाभि के ऊपर पूरा दार्शनिक चिंतन। इन उड़ते हुए सूक्ष्म लम्हों में कुंदेऱा कई उम्रें बुन लेते हैं।

पुरोधा लेखकों के ढलते हुए दिनों के रचना कर्म में अक्सर एक प्रवृत्ति पायी जाती है।  अपनी नैसर्गिक महानता और शायद ‘मस्क्युलर मेमोरी’ के चलते एक अच्छे लेखन के सभी तत्व तो प्रायः अपने स्थान पर होते हैं और यत्र तत्र महानता  की बूँदें भी बिखरी  होती हैं और एक अच्छी रचना सामने रहती है। पर ऐसे महान लेखकों का जीवन आसान नहीं होता क्योंकि उनकी हर रचना उनकी शिखर रचनाओं, जो अभ्यास से कम बल्कि अपार कौशल और उनकी आदिम और बेहद अल्हड़ मौलिक प्रतिभा से निकली होती हैं, के मापदंड पर ही नापी जाती हैं और अक्सर फीकी पायी जाती हैं।शायद इन रचनाओं में इन लेखकों की शुरुआती अमर कृतियों जैसे उनकी आत्मा अपने पूरे शबाब में नहीं झांकती है। उनके मुरीद उनकी इन ढलान के पन्नों में एक nostalgia के चलते लेखक और शायद अपने साझा युग की चिंगारियों को ढूँढते हैं और किसी भी दोयम दर्जे की चमक पर काफ़ी आनंद में आ जाते हैं। जो भी हो मेरे लिए तो ऐसे सितारों के सारे प्रयास एक बड़ा मौका होते हैं। nostalgia की अपनी व्यर्थता और उपयोगिता -utility and futility होती है पर एक जबरदस्त आनंद और अपील तो निःसंदेह होती होती है।  जब ‘Festival of Insignificance’ 13 साल के लम्बे अंतराल के बाद इस सदी के उनके पहले उपन्यास के तौर पर आयी थी तो वो मेरे जैसे प्रशंसकों के लिए अपना fandom चमकाने का बड़ा मौका था।  हालाँकि 115 पेज के टेलीग्राफिक उपन्यास का बुढ़ापा स्पष्ट है और अभी ढलते हुए सितारों के बारे में जो भी बातें मैंने कही गयी हैं वो इस पर भी लागू  होती हैं और ये ‘Unbearable Lightness of Being’ के स्तर पर नहीं है पर इस उपन्यास को भी हलके में लेना भूल होगी और खुद को एक ‘कंडेंस्ड ब्रिलियंस’ से वंचित करना होगा।   

‘Festival of Insignificance’ कुंदेरा की मूलभूत खूबियों का एक छोटा पर स्टार्क रिमाइंडर है। कैसे उनकी त्वरित छोटे क्षणों/फीलिंग्स /परिस्थितियों और कॉन्सेप्ट्स का अन्वेषण करने की महान  क्षमता और कैसे ये त्वरितता और सूक्ष्मता अपने niche स्वरुप के बावजूद जीवन के बड़े कैनवास को समझने और गढ़ने में हमारी मदद करती है।  कुंदेरा के पास मनोभावों और परिस्थितियों में अंतर्निहित तत्वों को पकड़ने की आलौकिक क्षमता है और वो इस समझ पर अपनी meditative interrogation की तकनीक बड़े ही प्रभावशाली तरीके से इस्तेमाल करते हैं।  इस लघु उपन्यासिका में उन्होंने insignificance को जीवन के सतहीपन और उसकी महत्वहीनता को जीवन के एक leitmotif, एक बार बार उठ खड़े होने वाले विचार, के तौर पर इस्तेमाल किया है और एक खासी मनोरंजक किताब लिख दी है।  अपने सूक्ष्म आकार के बावजूद ये उपन्यास एक कट्टर कुंदेरा फैन की प्यास निपटाने में सक्षम है।  हालांकि इसको पढ़ते हुए बरबस आखरी दिनों के तेंदुलकर की याद आ जाती है जब वो अपने शरीर के यथार्थ के हिसाब से पर्सेंटेज गेम खेलते थे।  एक रिटायरमेंट के करीब वाली सावधानी, मस्क्यूलर मेमोरी का आराम न की युवा प्रतिभा की जंगली गर्मी का अहसास। ‘Festival of Insignificance’ में 'एसेंशियल कुंदेरा' के सारे तत्व मौजूद हैं पर शायद एक कुंदेरा नावेल कुछ ऊपर की चीज़ होता है।  इतना सब कुछ कहने के बाद भी एक बात तो सच है की एक मास्टर ब्लास्टर हमेशा डिलीवर करता है।  उसकी हर पारी एक संजोने का सबब होती है।  एक स्तर हमेशा दीखता है चाहे मास्टर 'स्लीप वाक मोड' में ही क्यों न हो।


कुछ भी हो, कई तबकों में मिलान कुंदेरा के  आज के समय में महत्व और प्रासंगिकता पर सवाल तो उठने शुरू हो गए हैं।  गार्डियन अखबार के एक लेख ‘How important is Milan Kundera today? में Jonathan Coe लिखते हैं “Festival of Insignificance निश्चय ही typical Kundera तो है मगर classic Kundera नहीं। जहाँ उनकी मृदुल playful wisdom टिमटिमाती तो है पर ये बड़ा विस्मयकारी होता अगर  इसमें उनकी ढलान बिलकुल भी न झलकती।”   Jonathan Coe आगे लिखते है की यदि हम कुंदेरा की किताबों के कवर को देखें तो उन पर सलमान रुश्दी, Ian McEwan इत्यादि लेखकों के 30 साल से भी ज़्यादा पुराने उद्धरण और testimonials  पाएंगे।  यह हमें याद दिलाता है कि कुंदेरा की ख्याति 80  के दशक में अपने चरम पर थी जब हर कोई The Book of Laughter and Forgetting और  The Unbearable Lightness of Being के साथ ही दिखाई पड़ता था।  तब चेक कम्युनिज्म ज़्यादा पुराना  नहीं था और कुंदेरा की खिलन्दड़ी उश्रृंखलता को एक 'ग्रिम बैकड्रॉप' मुहैया कराता था।  अब ये देखने वाली बात है कि बिना इस पृष्ठ भूमि के कुंदेरा के डार्क मजाकिया और कई बार उश्रृंखल आत्मिक अन्वेषण की वेदना अभी  भी उतनी ही प्रसांगिक और उपयुक्त है या नहीं। उस दम  घोंटू माहौल में शायद जो खिलंदड़ापन और कुछ हद तक अश्लील नंगापन, अभिव्यक्ति की हुंकार लगते थे, क्या आज, जब उस माहौल को याद करना इतना आसान नहीं रह गया है, कुंदेरा उतने ही प्रभावी और प्रासंगिक हैं? 


ये सब शायद सही हो और कुंदेरा का लेखन अब उतना नया और उत्तेजक शायद न लगे पर इस से उनकी रचनाओं की और उनकी महत्ता में कोई कमी नहीं आती है।  वो एक महान उपन्यासकार और साहित्य मर्मज्ञ हैं. अपने genre और शैली के तो वो जन्मदाता ही कहे जायेंगे। उनकी मुख्य रचनाएँ अपने समय की सीमा तोड़ कर एक सर्वकालिक और सार्वभौमिक महत्त्व रखती हैं।  उनकी सर्वोत्तम  रचनाओं में एक परीक्षित जीवन का बौद्धिक और भावनात्मक आनंद घुला होता  है। उनकी व्यक्ति की चेतना के साथ इतिहास और राजनीति  के अन्तर्सम्बन्धों को स्थापित करने की क्षमता में एक ओपेरा की एक  आनंददायक भव्यता है।  एक भावनात्मक परिष्कार जो psycho-philosophical fiction के no man land में मंडराता रहता है।  


कुंदेरा ने औपन्यासिक अन्वेषणा के औज़ारों को बड़ी कुशलता से अपनी पसंद के मुद्दों पर deploy किया है जिसका साहित्यिक असर अकसर जबरदस्त रहा है।  उनके तथा कथित middle  पीरियड के काम पर उनकी ख्याति टिकी  हुई है। The Book of Laughter and Forgetting, The Unbearable Lightness of Being और  Immortality विश्व साहित्य की किसी भी जमात में सम्मान की पदवी के हक़दार हैं।  उनकी इन्क्वायरी की तीक्ष्णता, और जीवन की खुरदरी सच्चाइयों पर उनकी एक हलकी, सब कुछ समझती, मुस्कुराहट इन किताबों को नायाब बनाती हैं।  अपनी सारी चंचलता और विडम्बनाओं के मध्य ये उपन्यास ज़रूरी बने रहते हैं तो उसकी वजह है, कुंदेरा की मनोभावों और आत्मा की दुनिया पर एक संवेदनशील पकड़।  अच्छा साहित्य अपनी  सारी highbrow शास्त्रीयता के बावजूद हमेशा ग्राह्य रहता है।  कुंदेरा का साहित्य भी अपनी  ‘interiority’ और दार्शनिकता के बावजूद पाठक को काफी जाना पहचाना और करीब लगता है। 


कुंदेरा ने अपनी किताबों में अपना एक लहज़ा और एक वॉयस प्राप्त  की है।  वो गंभीर होने के दोष से पूरी तरह मुक्त है उनकी playful wisdom, European sensibilities और अप्रतिम ज्ञान उनको थोड़ा formidable  ज़रूर बनाता है पर वो नीरस और गंभीर कभी नहीं लगते हैं। ये चँचल शरारती टोन और वॉयस उनके लिए किसी भी डोग्मा के विरुद्ध कवच का काम करता है।  ऐसे व्यक्ति कभी भी सेल्फ पैरोडी के शिकार नहीं होते और अपनी वाणी की जड़ता से हमेशा बचे रहते हैं।  इन गुणों के साथ कुंदेरा  बड़े आत्मविश्वास के साथ खोई हुई संभावनाओं के खनन के लिए हमेशा स्वत्रंत रहते हैं।  


ये खनन आवश्यक तौर पर interrogative ही होता है।  उनकी किताबों में प्रश्नात्मक माहौल छाया रहता है और एक इन्क्वायरी सी चलती रहती है।  किसी भी मुद्दे या विचारधारा से unambiguously न जुड़ने की जिद का भी पूरी शिद्दत से पालन किया जाता है।  बड़ी से व्यापक इन्क्वायरी भी जो उत्तर देती है उनमें भी  work-in-progress की एक फील होती है।  ये उनका कोई ढीलापन या tentativeness नहीं है।  ये तो बस एक सहज स्वीकृति है की मानवीय मुद्दे अक्सर किसी अंतिम परिणीति पर नहीं पहुंचते हैं। 


कुंदेरा की relevance का रिक्विम या मर्सिया अक्सर इसलिए भी पढ़ा जाता है कि उनकी स्ट्रेंथ जैसे की irony, दार्शनिकता, निबंधात्मक शैली , ‘interiority’ कई बाद के लेखकों जैसे Julian Barnes, Alain de Botton और  Slavoj Žižek में  काफी सशक्त हो कर अभिव्यक्त हुई है।  पर ये तो कुंदेरा की महानता  का ही परिचायक है कि वो ऐसी महानता को इंस्पायर कर पाए। एक पायनियर या प्रवर्तक के तौर पर उनकी श्रेष्टता असंदिग्ध है।  


कुंदेरा विश्व साहित्य की अमूल्य  धरोहर हैं।  उनका योगदान उपन्यास की महान  परंपरा को आगे ले जाता है।  हिंदी के निर्मल वर्मा उनके समकालीन होने के साथ साथ उनके सरोकारों और शैली के बेहद करीब हैं और उतने ही मोहक हैं । इस मोहकता और एक तरह की व्यक्ति केन्द्रीयता की वजह से उनकी रचनाओं की गहराई और मानव जीवन के लिए उनका महत्व अक्सर पूरी तरह से समझा नहीं जाता है।   निर्मल वर्मा की तरह ही कुंदेरा को पूरी तरह समझने के लिए हिसाब किताब से ऊपर उठ रागवृत्ति के लिरिकल स्फीयर में जाना होगा और अपने ह्रदय को एक बेलौस नग्न आनंद को पूरी गहराई से अनुभव करने की अनुमति देनी होगी।  जिसने भी ये कर लिया उसके लिए कुंदेरा अप्रासंगिक हो ही नहीं सकते।  

 


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